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یاد ایامی که در گلشن فغانی
داشتم
در میــان لاله و گـــل آشیـــانـــی داشتم
گــرد آن شمع طرب می سوختـم پروانه وار
پــای آن ســـرو روان اشـــک روانـــی داشتــم
آتشـم بر جــان ولی از شکــوه لب خاموش بود
عشــق را از اشــک حســرت ترجمــانی داشتــم
چــون سرشک از شــوق بــودم خاکــبوس در گــهی
چون غبار از شکر سر بر آستانی داشتم
در خــزان با ســـرو و نسرینم بهاری تازه بود
در زمیــن با مــاه و پرویــن آسمــانی داشتــم
درد بــی عشقــی زجانــم بـرده طاقت ورنه من
داشــتــــــم آرام تــا آرام جــــانـــــی داشــــتـــــم
بلبــل طبعــم «رهی» باشـــد زتنهـــایی خمــــوش
نـغــمـــههــا بـــودی مــــرا تـــا هــم زبانـــی
داشتــــم